यह मामला तब सामने आया जब पीड़ित छात्रा ने कथित रूप से मुख्यमंत्री कार्यालय के बाहर आत्मदाह करने की कोशिश की, जिससे वह गंभीर रूप से झुलस गई। इस घटना ने राज्य भर में आक्रोश फैला दिया था और मानवाधिकार संगठनों ने स्वतः संज्ञान लेते हुए जांच की मांग की थी।
क्राइम ब्रांच ने जांच के बाद कहा कि छात्रा की शिकायत और लगाए गए आरोपों में तथ्यात्मक विसंगतियाँ थीं, और उन्हें सही ठहराने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं मिले। इसके अलावा, जांच समिति ने पाया कि छात्रा द्वारा जिन अधिकारियों पर लापरवाही का आरोप लगाया गया था, उनके खिलाफ भी कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले।
हालांकि, मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग ने अब भी इस मामले में पारदर्शिता की मांग करते हुए कहा है कि पीड़िता के बयान को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए, और उसकी मानसिक स्थिति, पारिवारिक दबाव तथा संस्थागत रवैये पर भी ध्यान देना जरूरी है।
राज्य सरकार ने कहा है कि पीड़िता के इलाज की पूरी जिम्मेदारी वह उठाएगी और अगर किसी भी स्तर पर नई जानकारी सामने आती है, तो मामला दोबारा खोला जाएगा।
निष्कर्ष:
यह घटना बताती है कि यौन उत्पीड़न और मानसिक उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मामलों में केवल कानूनी जांच ही नहीं, बल्कि समाज की संवेदनशील भागीदारी और संस्थागत उत्तरदायित्व भी उतना ही जरूरी है। राज्य प्रशासन पर भरोसे की बहाली तभी संभव है जब पीड़िता की बात को पूरी संवेदना और गंभीरता से सुना जाए।
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