बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण पर बवाल, अनुच्छेद 326 पर छिड़ी बहस

नई दिल्ली/पटना, 10 जुलाई 2025 —
बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग द्वारा राज्य की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू करने के बाद सियासी तूफान खड़ा हो गया है। इस प्रक्रिया के तहत लगभग आठ करोड़ मतदाताओं की घर-घर जाकर जांच की जा रही है। इस कदम की विपक्षी दलों ने तीखी आलोचना की है और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है।

चुनाव आयोग ने इस कदम को संविधान के अनुच्छेद 326 का हवाला देकर सही ठहराया है, जिसमें कहा गया है कि केवल वे भारतीय नागरिक जो 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के हैं, उन्हें ही मतदान का अधिकार है।

अनुच्छेद 326 क्या है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 326 भारत में वयस्क मताधिकार का कानूनी आधार है। इसके अनुसार, हर वह भारतीय नागरिक जो 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का है और किसी भी कानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित नहीं किया गया है, उसे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव में मतदान करने का अधिकार है।

इस अनुच्छेद में कहा गया है —
"लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे... ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो भारत का नागरिक है और जिसकी आयु 18 वर्ष से कम नहीं है, तथा जो संविधान या किसी अन्य कानून के अंतर्गत अयोग्य नहीं घोषित किया गया है, उसे मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का अधिकार होगा।"

चुनाव आयोग का कहना है कि मतदाता सूची को अद्यतन करने और नागरिकता की जांच करना इसी संवैधानिक प्रावधान को लागू करना है।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप:

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और इसे एक संवैधानिक दायित्व बताया। हालांकि, जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की पीठ ने प्रक्रिया के समय पर सवाल उठाए और सुझाव दिया कि आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर आईडी को पहचान पत्र के रूप में स्वीकार किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट एनजीओ और विपक्षी नेताओं की कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें आरोप लगाया गया था कि यह प्रक्रिया लाखों वास्तविक मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर सकती है।

विवाद क्यों हुआ?

चुनाव आयोग के 24 जून के आदेश के अनुसार, प्रत्येक मतदाता को एक सत्यापन फॉर्म भरकर उसमें अपना नाम, पता और फोटो देना होगा, साथ ही एक नई पासपोर्ट साइज फोटो और निवास प्रमाण भी देना होगा।

इसमें सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं हैं, उन्हें अतिरिक्त दस्तावेज देने होंगे, जिससे लगभग तीन करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं। साथ ही, 1987 के बाद जन्मे व्यक्तियों को यह प्रमाण देना होगा कि उनके माता-पिता 2003 की मतदाता सूची में थे। इसके अलावा, आधार और मनरेगा कार्ड जैसे सामान्य पहचान पत्रों को अमान्य मानने से प्रक्रिया और कठिन हो गई है।

राजनीतिक आरोप:

आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों सहित इंडिया गठबंधन के दलों ने चुनाव आयोग पर सत्तारूढ़ एनडीए के दबाव में काम करने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में पहले फर्जी मतदाता जोड़कर बीजेपी गठबंधन को फायदा पहुंचाया गया और अब बिहार में उनके विरोधियों के नाम मतदाता सूची से हटाए जा रहे हैं।

चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि यह प्रक्रिया पूरी तरह कानूनी है और जरूरी भी, क्योंकि बिहार में पिछली बार व्यापक मतदाता सूची पुनरीक्षण 2003 में हुआ था। आयोग का कहना है कि इसका उद्देश्य चुनाव से पहले एक सटीक और अद्यतन मतदाता सूची तैयार करना है।

आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रक्रिया को जारी रखने की अनुमति देने के बाद, अब निगाहें चुनाव आयोग पर हैं कि वह इस प्रक्रिया को कितना पारदर्शी और निष्पक्ष बना पाता है। अदालत द्वारा सुझाए गए विकल्पों पर विचार करते हुए आयोग से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह दस्तावेजों के नियमों में ढील दे और गलत तरीके से नाम हटाने की संभावना को रोके।

बिहार में चुनावी माहौल गर्म हो रहा है और इस मतदाता सूची पुनरीक्षण की प्रक्रिया के नतीजे लोकतांत्रिक प्रणाली और मतदाता अधिकारों पर बड़ा असर डाल सकते हैं।